बर्लिन: जर्मनी में नयी सरकार के गठन के लिये गठबंधन को लेकर चल रही वार्ता टूट जाने से एक बार फिर सियासी संकट गहराता दिख रहा है और देश को इस मुश्किल से बाहर निकालने का सारा दारोमदार एक बार फिर चांसलर एंजेला मर्केल पर आ गया है. इन हालात में जर्मनी एक बार फिर समय से पहले चुनाव के मुहाने पर है.
पिछले कुछ हफ्तों से अस्थायी सरकार की वजह से जर्मनी कोई साहसी नीतिगत फैसला नहीं ले पा रहा है. कोई दूसरे संभावित गठबंधन की गुंजाइश नजर नहीं आ रही और ऐसे में जर्मनी एक बार फिर समय से पहले चुनाव का सामना करने के लिये मजबूर हो सकता है. इसमें भी सितंबर में हुये चुनावों की तरह किसी को पूर्ण गठबंधन नहीं मिलने का जोखिम है.
मर्केल की उदारवादी शरणार्थी नीति गहन विभाजक साबित हुई और चुनावों में स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने के बाद उन्हें असमान विचारधारा वाले दलों के साथ गठबंधन करने के लिये मजबूर होना पड़ा था.
एक महीने लंबी बातचीत के बाद फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता क्रिश्चियन लिंडनेर ने कहा कि एंजेला के सीडीयू-सीएसयू और ग्रीन्स के कंजर्वेटिव गठबंधन के साथ सरकार बनाने के लिए ‘विश्वास का कोई आधार’ नहीं है.
लिंडनेर ने कहा कि खराब तरीके से शासन करने से बेहतर है कि शासन नहीं किया जाए. बातचीत इमिग्रेशन पर अलग अलग नजरिया होने समेत अन्य मुद्दों पर विवादित राय की वजह से बाधित हो गई. एफडीपी के फैसले पर खेद जताते हुये मर्केल ने जर्मनी को इस संकट से बाहर निकालने की बात कही.
उन्होंने कहा, ‘‘चांसलर के तौर पर…मैं यह सुनिश्चित करने के लिये वह सबकुछ करूंगी जिससे यह देश इस मुश्किल वक्त से बाहर निकल आये.’’ समाचार पत्रिका डेर स्पीगल ने बातचीत के टूटने को मर्केल के लिये ‘तबाही’ करार दिया और कहा कि अशांत पश्चिम में स्थायित्व के द्वीप के तौर पर देखे जाने वाले जर्मनी का अब ‘ब्रेक्सिट काल है, ट्रंप काल’ है.
एंजेला की उदारवादी शरणार्थी नीति ने 2015 से 10 लाख से ज्यादा शरणार्थियों को आने दिया है. इससे खफा होकर कुछ मतदाताओं ने अति दक्षिणपंथी एएफडी का दामन थाम लिया, जिसने सितंबर के चुनावों में इस्लामफोबिया और इमिग्रेशन विरोध मोर्चे पर प्रचार किया था.