राजस्थान के सियासी ड्रामे का पटाक्षेप हो गया है। सचिन पायलट को मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को चुनौती देना आखिरकार भारी पड़ा और उनका पत्ता साफ हो गया। अपने विरोधियों पर हमेशा भारी पड़ने वाले गहलोत ने सचिन की छुट्टी कराकर एक बार फिर साबित कर दिया कि वे वास्तव में राजनीति के ‘जादूगर’ हैं।
पूरे घटनाक्रम का विश्लेषण करें, तो ऐसा प्रतीत होता है कि मध्य प्रदेश की घटना के बाद सचिन पायलट का मौजूदा रुख आक्रामक था और उन्हें उम्मीद थी कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व उनकी बात को सुनेना। निश्चित रूप से जो मुद्दे वे उठा रहे थे वे जायज हो सकते हैं। वे महत्वाकांक्षी भी हैं। यह गलत भी नहीं है, लेकिन राजनीति में कौन सा दांव सही बैठे कौन सा उल्टा, कहना मुश्किल है।
पायलट को लगता था कि मौजूदा दौर में शीर्ष नेतृत्व उनकी बातों को गंभीरता से सुनेगा और उनके हक में फैसला भी कर सकता है, लेकिन गहलोत राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी तो हैं ही, दस जनपथ में उनकी पकड़ भी मजबूत है। इसलिए उन्होंने सचिन पायलट को उन्हीं के दांव में फंसा दिया। वे पार्टी नेतृत्व को यह समझाने में कामयाब रहे कि पायलट और उनके साथी बीजेपी के इशारे पर खेल रहे थे, लेकिन इसके बावजूद वे कमलनाथ की तरह चूके नहीं हैं बल्कि अपनी सरकार बचाने में सफल हो गए हैं।
विधायक दल की बैठक में उन्होंने केंद्रीय नेताओं के समक्ष संख्या भी गिना दी। इसलिए अब पायलट के खिलाफ कार्रवाई करनी जरूरी है। इस घटनाक्रम के बाद भी लोगों और यहां तक की कांग्रेस के भीतर भी युवा नेताओं की सहानुभूति पायलट के साथ है, लेकिन वे यह भी महसूस करते हैं कि पायलट ने कहीं न कहीं चूक की है।
सुरेजवाला का यह कहना है कि महज 17 साल के राजनीतिक करियर में पार्टी ने पायलट को सांसद, केंद्रीय मंत्री, प्रदेश अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री बनाया जो किसी भी लिहाज से कम नहीं है, गलत नहीं है। देखें तो पायलट का ‘हैंडसम पॉलिटिकल करियर’ चल रहा था। ऐसे में उन्होंने पार्टी के विपरीत जाकर क्या राजनीतिक अपरिपक्वता का परिचय नहीं दिया? खासकर, तब जब ज्योतिरादित्य सिंधिया की भांति उनके पास कोई प्लान बी भी नजर नहीं आ रहा।
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