सममनोज बाजपेयी: समस्या का हल देना फिल्मकार का काम नहीं

मनोज बाजपेयी की नयी फिल्म ‘भोंसले’ 26 जून को ओटीटी प्लेटफॉर्म सोनीलिव पर रिलीज हो रही है। महाराष्ट्र में बसे उत्तर भारतीयों से जुड़े बेहद संवेदनशील मुद्दे पर बनी इस फिल्म को कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं अलबत्ता भारत में यह अब रिलीज हो रही है। फिल्म को देवाशीष मखीजा ने निर्देशित किया है। इस फिल्म और दूसरे कई जरुरी मुद्दों पर मनोज बाजपेयी से बात की पीयूष पांडे ने।

सवाल- ‘भोंसले’ ओटीटी पर रिलीज हो रही है। आप संतुष्ट हैं ? क्योंकि आप फिल्म को सह निर्माता भी हैं।

जवाब- देखिए, भोंसले जैसी फिल्मों को दर्शक मिलना आज के समय में ओटीटी पर ही संभव है। क्योंकि थिएटर में रिलीज की जो मशक्कत है और जिस तरह एक लॉबी से गुजरकर छोटी फिल्म को हम जैसे तैसे सिनेमाघर तक ले जाते हैं तो काफी पैसे खर्च हो जाते हैं और कायदे के शो तक नहीं मिलते। फिल्म को न्याय नहीं मिल पाता और ट्रेड पंडित फिल्म को फ्लॉप साबित करने में देर नहीं करते। सही मायने में ओटीटी फिल्मों के लिए एक आशीर्वाद की तरह आया है। सोनी लिव पर ‘भोंसले’ लाने का फैसला हुआ तो मुझे और मेरे निर्देशक देवाशीष को बहुत खुशी हुई, क्योंकि हमें मालूम है कि छह दिन में इसे जितने दर्शक देखेंगे, उतने थिएटर में तीन हफ्ते में नहीं देख पाते।

सवाल- ‘भोंसले’ की कहानी के विषय में कुछ बताइए।

जवाब- ये कहानी भोंसले नाम के एक बुजुर्ग पुलिसवाले की है, जो रिटायर हो चुका है। हालांकि, वो रिटायरमेंट लेना नहीं चाहता था लेकिन उम्र की बाध्यता की वजह से रिटायर होना पड़ता है। लेकिन, उसके जीवन में उसकी नौकरी के अलावा कुछ नहीं था। उसका आम लोगों से कोई संवाद नहीं है। लोगों में उसकी कोई रुचि नहीं है। लेकिन, जिस वक्त ये चरित्र अपने हालात से जूझ रहा है, उसी वक्त बाहर लोकल बनाम प्रवासी का तनाव शुरु होता है। कैसे वो तनाव इस बुजुर्ग भोंसले को जीवन जीने का मकसद देता है, यही कहानी का सार है।

सवाल- जिस वक्त ‘भोंसले’ रिलीज हो रही है, बॉलीवुड में आउटसाइडर और इनसाइडर का मुद्दा गर्म है। आप खुद बॉलीवुड में बाहरी व्यक्ति के तौर पर देखे जाते रहे हैं। आपका क्या कहना है?

जवाब- देखिए, इनसाइडर और आउटसाइडर का मुद्दा बीते बीस साल से चल रहा है। लेकिन अब ज्वालामुखी की तरफ फूट पड़ा है। सवाल उठ रहे हैं, जिनका जवाब इंडस्ट्री को, इसके जिम्मेदार लोगों को, हम सबको देने हैं। लोगों में गुस्सा है, सवाल हैं और ये सवाल हवा में नहीं आए हैं, इसलिए सुधार करना होगा। इस सिस्टम को लोकतांत्रिक बनाना होगा। और जहां तक बात मेरी है, मैं शुरु से कोशिश करता रहा हूं कि जहां भी कोई प्रतिभा दिखे, उसे सराहूं और आगे बढ़ाने की कोशिश करुं। आप काम भले ना दे पाएं, लेकिन व्यक्ति की प्रतिभा को सराहने भर से काफी समस्या हल हो सकती है।

सवाल- सत्या में भीखू म्हात्रे, अलीगढ़ में डॉ.सिरस और भोंसले में अब बुजुर्ग भोंसले का मराठी व्यक्तित्व। आपने बहुत शिद्दत से ये किरदार जीये हैं। सत्या के वक्त तो कई लोग आपको महाराष्ट्रियन ही मानते थे। तो क्या अवचेतन में यह उत्तर भारतीयों का विरोध करने वाले लोगों को एक जवाब है कि देखो एक बिहारी भी मराठी हो सकता है।

जवाब- देखिए,कलाकार किसी क्षेत्र में बंधा नहीं होता। कलाकार की कला की उड़ान हर सीमा को पार करती है। कलाकार को एक चुनौती मिलती है, जिसे वो स्वीकार करता है और फिर उसे पूरा करने में जुट जाता है। मुंबई और महाराष्ट्र का मेरी जिंदगी में बहुत योगदान है तो एक लिहाज से ये तीनों किरदार इस शहर और राज्य को मेरी तरफ से एक ट्रिब्यूट है। इन किरदारों के जरिए मुझे शहर और राज्य को करीब से जानने,समझने और सीखने का मौका मिला है।

सवाल- फिल्में किसी समस्या को उठाकर सतह पर रख देती है। लेकिन हल नहीं बता पाती। तो क्या ‘भोंसले’ में लोकल बनाम प्रवासी की समस्या का हल है?

जवाब- सिनेमा की जिम्मेदारी हल बताने की नहीं है। सिनेमा की जिम्मेदारी है कहानी कहने की। अगर हम अपने समय की कहानी कह रहे हैं तो हमारा काम है कि सब पक्षों को सामने रख दें। ये दर्शक के ऊपर है कि वो क्या लेकर घर जाता है। फिर, जब समाजसेवी और राजनेता समाज नहीं सुधार पाए तो एक फिल्मकार से ऐसी उम्मीद बेमानी है।

सवाल- आप राष्ट्रीय पुरस्कारों से लेकर तमाम निजी पुरस्कारों की चयन प्रक्रिया से पिछले कई साल से नाराज हैं। आपने यहां तक कहा कि इनका स्तर हद से ज्यादा गिर चुका है। लेकिन, ये भी दिलचस्प विरोधाभास है कि आपकी फिल्मों को अवॉर्ड विनिंग फिल्में कहा जाता है और कहा जाता है कि वो आम दर्शकों के मतलब की नहीं होती।

जवाब- ये वास्तव में गजब विरोधाभास है, लेकिन यही साबित करता है कि पुरस्कार मायने नहीं रखते। लोगों के लिए फिल्म ही मायने रखती है। उन्हें फिल्म बहुत अच्छी लगी तो मानकर चलते हैं कि इसे पुरस्कार मिला होगा। मैं कहूं कि ‘अलीगढ़’ को कोई बड़ा पुरस्कार नहीं मिला तो कोई मानेगा नहीं। मैं कहूं कि कैसे उस फिल्म से पुरस्कार छीन लिए गए तो कोई मानेगा नहीं। जबकि मुझे मेरा पहला एशिया पैसिफिक स्क्रीन अवॉर्ड आस्ट्रेलिया में ‘अलीगढ़’ के लिए ही मिला था। अब दूसरा ‘भोंसले’ के लिए मिला है। लेकिन, देश में कोई बड़ा पुरस्कार नहीं मिला। हमारे देश में पता नहीं कैसे जूरी के सदस्य अपना जमीर बेचकर अच्छी फिल्मों के बजाय औसत फिल्म को अवॉर्ड देना तय कर लेते हैं। आप देखिए ‘गलीगुलियां’ को एक भी अवॉर्ड नहीं मिला। ज्यादातर जगह नॉमिनेट तक नहीं किया गया। पता नहीं कैसे और क्यों हम मीडियोक्रेसी का उत्सव मना लेते हैं। लेकिन अब मुझे गुस्सा नहीं आता। अब मुझे अचंभा होता है बस। बाकी जब अवॉर्ड देने वालों को अपनी विश्वसनीयता की चिंता नहीं है तो मुझे क्यों उनकी चिंता हो।

सवाल- आखिरी सवाल, भोंसले के बाद इस साल कोई फिल्म आने के आसार हैं?

जवाब- हालात सही हुए तो ‘सूरज पे मंगल भारी’ फिल्म आएगी। फिल्म का शूट पूरा हो चुका है और पोस्ट प्रोडक्शन चल रहा है।

– पीयूष पांडे

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