श्रीमद्भागवत पुराण में प्रसंग आता है कि जब भगवान श्रीकृष्ण द्वारका को छोडक़र जाने लगते हैं तब भगवान कृष्ण के परम भक्त उद्धव उनसे प्रश्न करते हैं ‘हे भूमन! हे सर्वात्मन! मेरा विचार ऐसा है कि विषयी लोगों के लिए कामनाओं का त्याग दुष्कर है। विशेष कर के आप में जिनकी भक्ति नहीं है, उन पुरुषों के लिए तो वह और भी कठिन है। हे नाथ! इसी तरह ‘मैं भी हूं।’ ‘यह मैं हूं, ‘यह मेरा है’ ऐसी मूढ़ बुद्धि से युक्त होकर मैं आप की माया से रची हुई देह तथा स्त्री-पुत्र आदि संबंधियों में निमग्न हो गया हूं। अतएव हे भगवान्! इस दास को संक्षेप में कहे हुए संन्यास तत्त्व का उपदेश इस ढंग से कीजिए कि जिससे मैं सरलता से उसका साधन कर पाऊं। हे भगवन! आप सत्य स्वरूप तथा स्वयं प्रकाश साक्षात् आत्मा हैं। आप से बढ़ कर आत्म ज्ञान का उपदेशक तो मुझे देवताओं में भी कोई नहीं दीखता। ब्रह्मा आदि समस्त देहधारी देवता आप की ही माया से मुग्ध हो कर बाहरी मायिक पदार्थों को सत्य मान बैठे हैं। अतएव विविध आपत्तियों से सन्तप्त तथा संसार से खिन्न चित्त होकर मैं निर्मल अनन्त, अपार, सर्वज्ञ ईश्वर तथा काल आदि से अपरिच्छेय वैकुण्ठ धाम के निवासी तथा साक्षात् नर के सखा नारायण स्वरूप आप ईश्वर की शरण में आया हूं।
उद्धव के प्रश्न के उत्तर में भगवान ने कहा-संसार के सत्त्व की आलोचना करने वाले पुरुष प्राय: स्वयं अपने चित्त की अशुभ वासनाओं से अपना उद्धार कर लेते हैं क्योंकि सब प्राणियों की आत्मा ही अपना गुरु है। उन में भी मनुष्य की आत्मा तो विशेष रूप से गुरु हैं। क्योंकि वह प्रत्यक्ष और अनुमान द्वारा तुरंत अपने श्रेय का निर्णय कर ले सकती हैं। मनुष्य में भी जो बुद्धिमान् पुरुष सांख्य योग अर्थात् प्रकृति पुरुष विवेक में कुशल है, वे सर्व शक्ति सम्पन्न मेरे स्वरूप को भली-भांति देख लेते हैं। मैंने एकपद, द्विपद, त्रिपद, चतुष्पद, बहुपद और पादहीन रूप से विविध भांति के शरीरों को रचा है। किन्तु उनमें भी मुझे तो सबसे अधिक प्रिय मनुष्य शरीर ही है क्योंकि संयतचित्त पुरुष इसी देह में हेतु तथा फल का विचार करते हुए दिखाई देने वाले गुण यानी बुद्धि आदि इन्द्रिय रूपी लिंगों द्वारा अनुमान कर के मुझ अग्राह्य ईश्वर का अनुसंधान कर लेते हैं। इस विषय में श्रीकृष्ण अवधूत तथा अमित तेजस्वी यदु के सम्वाद का एक प्राचीन इतिहास बताते हैं। एक समय धर्मज्ञ राजा यदु ने एक अत्यन्त निर्भीक तथा महाविद्धान युवा अवस्था के अवधूत को विचरते देख कर पूछा हे ब्रह्मन्! कर्तापन के भाव से विहीन आप को ऐसी विमल बुद्धि कैसे और कहां से मिली? जिसके सहारे आप विद्वान हो कर भी बालक के समान स्वेच्छानुसार विचरते हैं।
संसार के लोग प्राय: आयु, यश तथा वैभव आदि के लिए ही अर्थ, धर्म काम अथवा तत्त्व जिज्ञासा करते हैं। लेकिन आप तो समर्थ, विद्वान, दक्ष, सुन्दर तथा मधुर भाषी होकर भी जड़, उन्मत्त तथा पिशाच की भांति न कुछ करते हैं और न कुछ चाहते ही हैं। सभी संसारी लोग कामनाओं के दावानल में जले जा रहे हैं, किन्तु आप गंगा जल में खड़े गजराज के समान उस अग्नि से मुक्त होने के कारण उस से सन्तप्त नहीं होते। हे ब्रह्मन्! हम पुत्र कलत्र आदि संसार-स्पर्श से रहित एवं आत्म स्वरूप में स्थित आप के आनन्द का कारण पूछ रहे हैं, सो कृपा कर के आप हमें बतला दीजिए। भगवान बोले-ब्राह्मणों के भक्त तथा अच्छी बुद्धि वाले यदु के ऐसा पूछने पर वे महाभाग द्विज श्रेष्ठ प्रसन्न होकर उन विनयावनत राजा यदु से कहने लगे। अवधूत ने कहा-हे राजन! मेरे बहुतेरे गुरु हैं। उनको मैं अपनी बुद्धि से स्वीकार किया है और उनसे ही बुद्धि पाकर मैं बन्धन रहित होकर स्वच्छन्द विचरता हूं। उनके नाम ये हैं-पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कपोत, अजगर, समुद्र, पतंग, मधु मक्षिका, हाथी, शहद ले जाने वाला, हरिन, मीन, पिंगला वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कुमारी, बाण बनाने वाला, सर्प, उर्णनाभि अर्थात् मकड़ी और भृंगीकीट। हे राजन्! मैंने इन्हीं चौबीस गुरुओं का आश्रय लिया था और इन्हीं से शिक्षा लेते हुए मैंने लोक में अपने को सुशिक्षित किया है। हे ययातिसुत! मैंने जिस से और जैसे जो कुछ सीखा है, हे पुरुष सिंह! वह सब मैं कहता हूं, तुम सुनो।
देव माया से प्रेरित कोई प्राणी यदि किसी तरह कष्ट भी पहुंचाए तो भी विद्वान अपने मार्ग से विचलित न हो, यह धैर्य व्रत मैंने पृथ्वी से सीखा था। साधु का कर्तव्य है कि जिन की सारी चेष्टाएं सर्वदा दूसरों के लिए होती हैं और जिनकी उत्पत्ति केवल परोपकार के लिए होती है, उन पर्वत तथा वृक्षों से परोपकार करना सीखे। जैसे प्राण वायु केवल भोजन भर चाहती हैं, उसे किसी प्रकार के रूपरस आदि की आवश्यकता नहीं पड़ती, वैसे ही योगी भी जिसमें ज्ञान नष्ट न हो और मन-वाणी भी विकृत न हों, ऐसे भोजन से ही सन्तुष्ट रहे। रसना आदि इन्द्रियों को प्रिय लगने वाले पदार्थों को न चाहे। जैसे बाह्य वायु सर्वगामी होती हुई भी स्वरूप से सदा निर्लिप्त रहती है, वैसे ही नाना प्रकार के विषयों को ग्रहण करता हुआ भी योगी उनके गुण-दोषों से अलग रहकर उनमें न लिप्त हो। जैसे वायु गन्ध वहन करती हुई भी सदा शुद्ध बनी रहती है, वैसे ही इस पार्थिव शरीर में रहने से इसके गुणों का आश्रय लेकर भी आत्मज्ञानी उन में कभी आसक्त न हो। इस रीति से मैंने प्राण वायु से संयम तथा बाह्य वायु से असंग रहने की शिक्षा पाई है। अपने निजी स्वरूप से सबके अनुगत होने के कारण ब्रह्म सभी स्थावर जंगम उपाधियों में स्थित है।
मुनि का कर्तव्य है कि मणियों में व्याप्त सूत्र की भांति उस सर्वगत आत्मा की व्याप्ति के द्वारा उसकी अपरिच्छिन्नता, असंगता तथा आकाश रूपता की भावना करे। जैसे तेज, जल और अन्नमय पदार्थों तथा वायु जनित मेघ आदि से आच्छन्न होकर भी आकाश उनसे निर्लिप्त रहता है, वैसे ही आत्मा का भी कालकृत गुणों से कोई संबंध नहीं रहता। यह गुण आकाश से सीखना चाहिए। स्वभावतया शुद्ध, स्नेह, युक्त, मधुर भाषी तथा मनुष्यों के लिए तीर्थ स्वरूप मुनि अपने साथियों को दर्शन, स्पर्श और यशोगान से ही जल के समान पवित्र कर देता है। यह गुण जल से पाया है। अग्नि से मुझे वह शिक्षा मिली है, जितेन्द्रिय मुनि अग्नि के समान तेजस्वी, तप के कारण देदीप्यान तथा अक्षोभ्य होता है। वह केवल उदर रूप पात्र रखता है अर्थात् जो कुछ मिले उसे पेट में डाल लेता है, कभी कुछ संचय करके नहीं रखता तथा अग्नि की भांति सर्व भक्षी होकर भी संयतचित्त होता है और वह कभी गुप्त और कभी प्रगट होकर रहता एवं आत्म कल्याण की इच्छा वालों से सेवित होता है। वह अपने दाता के अतीत तथा आगामी अशुभों को भस्म करता हुआ सर्वत्र अन्न ग्रहण करता है।
योगी के लिए उचित है कि अलग-अलग उपाधियों अर्थात् काष्ठ, लोहा आदि में प्रविष्ट अग्नि के समान दीखता है, वैसे ही विभु आत्मा अपनी माया रचे सत् असद् रूप प्रपंच में प्रविष्ट होकर उपाधियों के अनुसार सब कार्य करती है। यह गुण अग्नि से ले। अलक्ष्य गति काल के प्रभाव से घटने-बढऩे वाली चन्द्रमा की कलाओं के समान जन्म से मृत्यु तक सारी अवस्थाएं शरीर की ही होती हैं, आत्मा की नहीं। अग्नि की शिखा जैसे निरन्तर क्षण-क्षण में उत्पन्न तथा विलीन होती रहती है, किन्तु उसमें कोई भेद प्रतीत नहीं होता। वैसे ही जल प्रवाह के समान वेगवान् काल के द्वारा भूतों की उत्पत्ति तथा नाश-क्षण-क्षण में होते ही रहते हैं, किन्तु अज्ञान वश वे दिखलाई नहीं पड़ते। यह मैंने चन्द्रमा से सीखा है। जो मैंने सूर्य से सीखा है सो भी सुनो सूर्य जैसे अपनी किरणों से पृथ्वी का जल खींच कर समयानुसार उसे बरसाता है, वैसे ही योगी भी गुणानुवर्तिनी इन्द्रियों द्वारा त्रिगुणमय पदार्थों को ग्रहण करता और यथा समय उनको त्याग भी देता है, उनमें कभी आसक्त नहीं होता। सूर्य के समान व्यक्तिगत उपाधियों के भेद से स्थल बुद्धि लोगों को आत्मा व्यक्ति विशेष में स्थित जान पड़ता है।’
प्रसंग में आगे कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंगा, पुष्प, वेश्या, मकड़ी, शरीर इत्यादि करीब 24 को अपना गुरु मानकर वह ज्ञानी पुरुष कहता है कि इन सबसे ज्ञान पाकर मैं निरंकार तथा निसंग होकर इस भूृ-मण्डल पर घूम रहा हूं। उस श्रेष्ठ बुद्धि ब्राह्मण ने यदु को कहा है कि अकेले गुरु से ही सुदृढ़ ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता। उसके लिए स्वयं भी विचार करने की आवश्यकता है। देखो एक ही अद्वितीय ब्रह्म का ऋषियों ने विविध प्रकार से वर्णन किया है। आज के दिन संकल्प लें कि गुरु से जो ज्ञान प्राप्त हुआ है उसकी रोशनी में हम स्वयं अपने पुरुषार्थ से आगे बढ़ेंगे। गुरु तो हमें मौत से मोक्ष की राह दिखा सकता है, चलना तो हमें ही है।
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